अभ्रक

अभ्रक




                         आयुर्वेद शास्त्र और भारतीय पौराणिक ग्रंथों में वर्णित अभ्रक एक बहुपयोगी खनिज पदार्थ है। इसे खदानों में उतखन्न कर नीकला जाता है और इसे बहुत पतली-पतली परतों में चीरा जा सकता है। इसका स्वाद फीका होता है और रंगो के आधार पर इस के प्रमुख चार भेद होते है और बाकी उप प्रकार होते है। औषध कर्म के लिए अभ्रक सफेद, लाल, पीला और काले रंग मे पाया जाने वाला इस्तमाल कीया जाता है। रसशास्त्र मे अभ्रक औषध और अलग-अलग क्रिया ओं मे, उपयोग मे लाया जाता है जैसे सफेद अभ्रक चांदी आदि श्र्वेत वस्तु मरण क्रियाओं में, लाल रक्त शुद्धि या हिंगुल जैसे रक्त द्रव्यों के शोधन क्रिया में, पीला स्वर्ण आदि पीली वस्तुओं के मरण करणे या बनाने में श्रोष्ठ माना जाता है। इसी प्रकार काले वर्ण का अभ्रक पिनाक आदि की अपेक्षा करोड़ों गुण अधिक फलदाक है।
                       आयुर्वेद अनुसार अभ्रक अमृत समान औषधि है। यह तीनो दोषों को शान्त करता है, क्षरोग को नष्ट करता है, बुद्धि को बढाते है, शारीरिक व्याधियों को शान्त करता है, सम्पुर्ण शारीरिक धातुओं को बल प्रदान करता है, उत्तम आयुवर्धक व बल वर्धक है, शारीरिक अवयवों में मृदुता और कार्यक्षमता उत्पन्न करता है। यह रुचिकारक, कफशमक, अग्निदीपक तथा शीतवीर्य होता है।                   
                        आयुर्वेद अनुसार अभ्रक हमारे शरीर का एक अंगभूत घटक है। हमारी मास पेशीयों में 41% , यकृत में 26%, प्लाह में 27% , लसीक में  5 प्रतिशत तक पाया जाता है और फुफ्फुसों में यह अधिक मात्रा में पाया जाता है। शास्त्रो के अनुसार हमेशा शुद्ध अभ्रक का प्रयोग सेवन करने के लिए करना चाहिए अगर अशुद्ध अभ्रक का प्रयोग सेवन करने के लीए होता है तो निश्र्चय ही विकार उत्पन्न हो जाते है। इस दुविधा से बचने के लिए शास्त्रो में शुद्ध अभ्रक से बने अभ्रक भस्म का प्रयोग कीया जाता है। परंतु उपयोग करने से पहले यह ध्यान देना जरूरी है की चमक रहित अच्छी तरह मृत अभ्रक सब रोगों में सेवन कर सकते है अगर अभ्रक भस्म चन्द्र के मुख के समान वर्ण का हो तो सेवन ना करे, इसके सेवन से प्रमेह और मन्दाग्नि वाले रोग उत्पन्न होते है।
                        अभ्रक भस्म आयुर्वेद में रोगो के इलाज में प्रयोग की जानी वाली एक प्रचीन दवा है। यह दवा ज्वर, श्वास, कास, त्रिदोष (वात, पित एवं कफ की बढ़ोतरी), अग्निमंध्य (भूख न लगना), गृहणी, यकृत एवं प्लीहा के रोग, प्रमेह (सभी प्रकार के), एनीमिया एवं पुरुषों की योन शक्तिबढाने आदि रोगों में प्रमुखता से उपयोग ली जाती है। शीघ्र स्खलन, नपुंसकता, कमजोरी, नशा, हृदय रोग, उन्माद (पागलपन) आदि रोगों में  एवं रोगी की स्थिति के आधार पर विभिन्न अनुपानों के साथ प्रयोग करवाई जाती है।

सेवन की मात्रा और अनुपान :-
1 से 2 रत्ती प्रात-सायं रोगानुसार शहद के साथ।

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