आयुर्वेदिक चिकित्सा


आयुर्वेद की उत्पत्ति
इस आधुनिक काल मे उपलब्ध वेद, पुरान और विविध ग्रंन्थों के आधार पर आयुर्वेद के उत्पत्तिकाल का निर्णय कीया जाय तो आयुर्वेद को अनादि, अनंत और अपौरूषेय कहना ही उचीत होगा। भारत के पौराणिक ग्रंन्थों के अनुसार ब्रम्हदेव जी ने सृष्टिसृजन में जीवों की उत्पत्ति के पेहेले ही आयुर्वेद की रचना की है।
              सृष्टि से पूर्व आयुर्वेद की रचना उसी प्रकार संभव है जिस प्रकार शिशु की उत्पत्ति के पूर्व स्तन की उत्पत्ति हो जाती है।  ( काश्यसंहिता )

आयुर्वेद की परिभाषा 
           जिस शास्त्र में आयु के हित-अहित कारक पदार्थों का उल्लेख हो और रोगों के निदान या उत्पन्न होने का सही कारण और उसके उपचार का योग्य वर्णन किया गया हो उसे ही सर्वश्रेष्ठ आयुर्वेद कहते है। इस शास्त्र के व्दारा प्राणिमात्रा को दीर्घायुष्य की प्राप्ति और नीरोगी जीवन विषयक सभी तथ्यों का ज्ञान होने के कारण दूसरो का आयु का परिज्ञान होता है,  इसी लीये ही इसे सर्वश्रेष्ठ आयुर्वेद कहते है।

आयुर्वेद का विस्तार
            आयुर्वेदोत्पत्ति के बाद ब्रम्हाजी ने पार्थिव सृष्टि करने के साथ ही साथ प्राणियों को विविध रोगों से बचाने के लीए सर्वप्रथम दक्षप्रजापति को आयुर्वेद का उपदेश दिया। उसके बाद दक्षप्रजापति ने अश्विनीकुमारो को आयुर्वेद का उपदेश दिया जिन्होंने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ा था। फिर अश्विनीकुमारो ने अपने नाम पर एक संहिता का निर्माण की जीसे देखकर देवराज इन्द्र ने भी स्वयं अश्विनीकुमारों से आयुर्वेद का अध्ययन किया।
              फीर देवइन्द्र से महर्षि आत्रेय और आत्रेय से अग्निवेश, भेल, जतुकर्ण, पराशर, क्षारपाणि तथा हरीत नामक ऋषियों ने  आयुर्वेद का अध्ययन किया। फिर उन्होंने अपने- अपने नाम की अलग-अलग एक संहिता का निर्माण कीया। ( भावप्रकाश निघण्टु )

आयुर्वेद का क्षेत्र
              आयुर्वेद वो शास्त्र है जो मानव जाती के भलाई के लीये देवइन्द्र ने महर्षियो को सीखाया। आयुर्वेद मे केवल मनुष्य संम्बन्धी रोगों की चिकित्सा का वर्णन नहीं अपितु पशु और वृक्षों से संम्बन्धित रोगों की चिकित्सा का विस्तुत वर्णन भी किया है जैसे हाथियों, अश्वों, गो चिकित्सा एवं वृक्षों और खेती मे होने वाले रोगो के बारे मे लीखा गया है।
                 विभिन्न रोगो की चिकित्सा के साथ-साथ आयुर्वेद इस बात पर अधीक बल देता है कि एक इनसान अपने स्वास्थ को किस प्रकार बनाये रखे। अनेक आन्तरिक रोगों की चिकित्सा के लिए आयुर्वेद ने विवेकपूर्ण उपाय बताए है। पर आजकल की प्रचलित अन्य चिकित्सा पध्दतियों मे इस तरह के रोगों को कष्टसाध्य एवं असाध्य माना गया है। आयुर्वेद मे मनुष्य के आहार, विहार और दैनंदिन के कर्मो के बारे मे विस्तार से वर्णन कीया गया है ताकी विभिन्न रोगों से बचाव कीया जा सके। शरीर अनेक बाह्य कारणों से तो रोगों का शिकार हो जाता है, इसके अलावा भूक, प्यास, वृध्दावस्था आदि कुछ प्राकृतिक कारण भी है, जीनके कारण शरीर रोगों का शिकार हो सकता है। इन प्राकृतिक रोगों की रोक थाम के लीये भी आयुर्वेद मे विस्तार से वर्णन कीया गया है।

आयुर्वेद की आठ शाखाएँ
                     स्पष्ट रूप से देखा जाये तो आयुर्वेद का विषय क्षेत्र अत्याधिक व्यापक है। अध्ययन की सुविधा हो इसी लिए इसे आठ शाखावो मे बाँटा गया है। वह इस प्रकार है।

1)  कायचिकित्सा :-

                   इसमें सामान्य रूप से औषधि प्रयोग द्वारा चिकित्सा की जाती है। प्रधानत: ज्वर, रक्तपित्त, शोष, उन्माद, अपस्मार, कुष्ठ, प्रमेह, अतिसार आदि रोगों की चिकित्सा इसके अंतर्गत आती है।

2)  शाल्यतंत्र :-

                 विविध प्रकार के शल्यों को निकालनेकी विधि एवं अग्नि, क्षार, यंत्र, शस्त्रआदि के प्रयोग द्वारा संपादित चिकित्सा को शल्य चिकित्सा कहते हैं। किसी व्रण में सेतृण के हिस्से, लकड़ी के टुकड़े, पत्थर के टुकड़े, धूल, लोहे के खंड, हड्डी, बाल, नाखून, शल्य, अशुद्ध रक्त, पूय, मृतभ्रूण आदि को निकालना तथा यंत्रोंएवं शस्त्रों के प्रयोग एवं व्रणों के निदान, तथा उसकी चिकित्सा आदि का समावेश शल्यतंत्र के अंतर्गत किया गया है।

3)  शालाक्यतंत्र  :-

                  गले के ऊपर के अंगों की चिकित्सा में बहुधा शलाका सदृश यंत्रों एवं शस्त्रों का प्रयोग होने से इसे शालाक्ययंत्र कहते हैं। इसके अंतर्गत प्रधानत: मुख, नासिका, नेत्र, कर्ण आदि अंगों में उत्पन्न व्याधियों की चिकित्सा आती है।

4)  कौमारभृत्य ( बाल रोग ) :-

                  बच्चों, स्त्रियों विशेषत: गर्भिणी स्त्रियों और विशेष स्त्रीरोगके साथ
गर्भविज्ञान  का वर्णन इस तंत्र में है।

5)  अगदतंत्र / व्यवहार आयुर्वेद ( विष चिकित्सा ) :- 

                  इसमें विभिन्न स्थावर, जंगम और कृत्रिम विषों एवं उनके लक्षणों तथा चिकित्सा का वर्णन है।

6)  भूतविद्या  :-

                 इसमें देवाधि ग्रहों द्वारा उत्पन्नहुए विकारों और उसकी चिकित्सा का वर्णन है।

7)  रसायनतंत्र  :-

                  चिरकाल तक वृद्धावस्था के लक्षणों से बचते हुए उत्तम स्वास्थ्य, बल, पौरुष एवं दीर्घायु की प्राप्ति एवं वृद्धावस्था के कारण उत्पन्न हुए विकारों को दूर करने के उपाय इस तंत्र में वर्णित हैं।

8)  वाजीकरण :-

                   शुक्रधातु की उत्पत्ति, पुष्टता एवं उसमें उत्पन्न दोषों एवं उसके क्षय, वृद्धि आदि कारणों से उत्पन्न लक्षणों की चिकित्सा आदि विषयों के साथ उत्तम स्वस्थ संतोनोत्पत्ति संबंधी ज्ञान का वर्णन इसके अंतर्गत आता हैं।


आयुर्वेद की असाधारण विशेषताएँ :-
                      आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति की निम्नलिखित कुछ विशेषताएँ ऐसी है, जो की अन्य चिकित्सा पध्दतियों मे नही पाई जाती है।

1 - संम्पूर्ण शरीर या व्यक्तित्व की चिकित्सा
                      आधुनिक चिकित्सा पध्दति  मे किसी रोगी के रोग का उपचार करते समय केवल उसी अंग पर अधीक ध्यान दिया जाता है, जै रोग ग्रस्त है। परन्तु आयुर्वेद चिकित्सा पध्दति में केवल  रोग ग्रस्त अंग को ही नही, अपितू रोगी के सम्पूर्ण शरीर औऱ उसके व्यक्तित को दृष्टि मे रखा जाता है। उपचार  के समय शरीर के दूसरे अंगो के साथ- साथ रोगी की मानसीक और आध्यात्मिक स्थितियों को भी ध्यान में रखा जाता है।

2 - सस्ती और घरघुती औषधियाँ
                       आयुर्वेद की अधिकतर औषधियाँ घरके मसालो और जंगलो से प्राप्त जडी बूटियों से ही तैयार की जाती है। इसलिये ये औषधियाँ प्रभावी और अपेक्षाकृत सस्ती हैती है।

3 - स्वदेशी चिकित्सा से विदेशी मुद्रा की बचत
                         आयुर्वेदिक औषधियाँ वनस्पतियों, खनिज पदार्थो, धातुओं एवं पशु जगत से प्राप्त पदार्थो से तैयार की जाती है। यह सब यही उपलब्ध है। इन्हे विदोशों से आयात करने के लीये विदेशी मुद्रा का प्रयोग नही करना पडता और आयुर्वेदिक औषधियाँ तैयार करने के लीये विदेशी योग्यता एवंं संसाधनों की भी आवश्यकता नही पडती।

4 -  समाजवादी विचारधारा का परिपोषण
                           आधुनीक युग में चिकित्सक के पास इतना समय नहीं है कि वह औषधियाँ स्वयं बनाये। इसलिये उन्होंने औषधियाँ तैयार करने के लिए फार्मसियाँ खोली जाती है। यह फार्मसियाँ निजी अधिकार में ही खोली गई है। इन्हे चलाने के लिए बहुत अधिक सम्पत्ति की आवशकता नहीं होती। इस प्रकार इसके लाभ का बहुत सार अंश कच्च माल इखट्ठा करने वाले मजदूरों को मिल जाता है। इस प्रकार यह पध्दति समाज में समानता एवं समाजवादी दृष्टिकोण का पोषण करता है।

5 - विषैले प्रभाव से मुक्ति
                              प्राचिन पध्दति होने के कारण आयुर्वेद औषधियो के पीछे सैंकडो वर्षो का अनुभव है। इस लिए ये औषधियाँ शरीर पर किसी प्रकार का विषैला प्रभाव नही डालतीं। यदापि औषधियैँ तैयार करने मे कुछ विषैले द्रव्यों का भी प्रयोग कीया जाता है। परन्तु प्रयोग मे लाने से पहले कुछ विशेष प्रक्रियाओं व्दारा इनके विषैले प्रभाव को नष्ट कर दिया जाता है।

6 - प्रतेक औषधि एक टाॅनिक
                                  आधुनिक चिकित्सा पध्दति में विटामिनों एवं खनिजों के अलावा अन्य औषधियों का प्रयोग केवल रोगी ही कर सकते है। परन्तु आयुर्वेद में प्रयुक्त होने वाली सभी औषधियों का प्रयोग रोगी के साथ - साथ एक स्वस्थ व्यक्ति भी कर सकता है। ये आयुर्वेदिक औषधियाँ जहाँ रोगी के रोग का उपचार करती है, वहाँ स्वस्थ व्यक्ती के शरीर में रोग प्रतीरोधक शक्ति का विकास करती है।

7 - जन-जीवन के रिवाजों का परिपोषण
                                आयुर्वेद में औषधि के साथ-साथ रोगी के लिए विशेष प्रकार के आहार-विहार का उल्लेख भी किया जाता है। ये आहार-विहार रोगो के रीति-रिवाजों एवं परम्पराओं के अनुकूल ही होते हैं। इस प्रकार रोगी विदेशी मान्यताओं का दास न बनकर अपनी ही परम्पराओं का पालन करना होता है। दूसरी और ,लोग  आयुर्वेदिक चिकित्सक का सम्मान भी करते है और उनपर बहुत विश्वास भी करते है।

8 - रोगों का मनो-दैहिक स्वरूप
                                 कोई भी रोग केवल शारीरिक अथवा केवल मानसिक नही हो सकता। बहुत से मानसिक तत्व मानसिक रोगों के मुख्य कारण है। इस आधार पर ही आयुर्वेद मे सभी रोगों को मनोदैहिक रोगों के रूप मे स्वीकार किया गया है।

9 - रोग-प्रतिरोधी औषधियों का अधिक प्रयोग
                                  आयुर्वेद में इस बात पर अधिक बल दिया गया है कि व्यक्ति रोगों से बचा रहे, उसपर रोगोका आक्रमण ही न हो। इसीलिये इसमें एक स्वस्थ मनुष्य के लिए बहुत से निर्देशों और निषेधों का उल्लेख किया गया है। भिन्न-भिन्न आयुवर्ग एवं भिन्न-भिन्न के समाज में रहेने वाले लोगों को दिन-रात एवं विभिन्न ऋतुओं में किस-किस प्रकार के आहार-विहार आचरण करना चाहिए ? इन सबका विस्तृत रूप से विवेचन किया गया है। ( आयुर्वेद का सैध्दान्तिक अध्ययन )

स्वस्थ बने रहने के लिए आदर्श दिनचर्या

स्वास्थ के नियमानुसार हमें दिनचर्या और ऋतुचर्या पर विशेष ध्यान देना चाहिए। जहां तक दिनचर्या का प्रश्न है, उसमें सुबह ब्रम्ह मुहूर्त में उठने से लेकर शौचाविधि, दन्तधवन, तेलमालिश, व्यायाम, स्नान, भोजन, विश्राम, अध्ययन, ,खेल-कूद और शयन तक के सभी कार्यों का समावेश होता है। ये सभी कार्य समय पर नियमित रूप तथा उचित विधि से होने चाहिएं। जादा से जादा जानकारी के लीये योगरत्नाकर पढे।
                               इन सभी कोर्यों में ऋतु के अनुसार कुछ परिवर्तन जरूरी होते हैं। जो व्यक्ति ऋतु के अनुसार दिनचर्या मे अन्तर नहीं करते, वे ही रोग के शिकार बनते हैं। उदा. गर्मियो में अधिक व्ययाम नहीं करना चाहिए, क्योंकि इस ऋतु में स्वाभाविक रूप से थकान तथा अधिक पसीना आता रहता है।

आहार
भोजन के विषय में भी हमें विशेष ध्यान देना चाहिए। अपनी प्रकृति के विपरीत तथा ऋतु के विपरीत आहार रोग उत्पन्न करते है। इस बात का ध्यान रखना भी आवश्यक है कि आहार का मिश्रण भी विपरीत प्रभावकारी सिद्ध न हो जाए जैसे दूध के साथ दही, इमली, खरबूजा, बेल, तुरई, नारियल, कटहल, मूली, प्याज, तिल  खट्टे फल , नमक ये वस्तु नहीं लेनी चाहिए। आहार सदैव स्वादिष्ठ, ताजा, हल्का, समयानुसार,मात्रापूर्वक ही करना चाहीए।

निद्रा
समय पर सोना और समय पर उठना जितना आवश्यक हैं, उतना ही अवस्थानुसार निद्रा लेना आवश्यक है जैसे बालको को दस घण्टे, युवकों को आठ घण्टे तथा वृध्दों को छ: घण्टे सोना चाहिए। जो लोग जब चाहे सो जाते हैं या दिन मे अधिक सोते है वह रोगो की चपेट मे आ जाते है।

ब्रम्हचर्य
जो लोग ब्रम्हचर्य के सिध्दांन्तों के विपरीत काम करते है, हमेशा रोगी रहते है। उनका शरीर अनेक बीमारियों का घर बन जाता है। अत: गृहस्थाश्रम में भी मर्यादा एवं नियमपालन आनश्यक होता है। जादा से जादा जानकारी के लीये योगरत्नाकर पढे।

वेग-आवेग
शौच, मूत्र, छींक, जंभाई, हिचकी, अश्रु आदि के वेगों को त्यगने की अव्यस्था में इन्हें यदि रोका जाए, तो भी अनेक रोगों के उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है। अत: इन शंकाओं को समय पर त्याग देना श्रेयस्कर है।


Post a Comment

0 Comments