अष्टांग आयुर्वेद




अष्टांग आयुर्वेद :- 

                                             शरीर चिकित्सा के आठ विभाग विस्तृत विवेचन, विशेष चिकित्सा तथा सुगमता आदि के लिए आयुर्वेद को आचार्य वग्नभट जीने आठभागों (अष्टांग) में विभक्त किया है।

1)  कायचिकित्सा (physician) :-

                                                इसमें सामान्य रूप से औषधि प्रयोग द्वारा चिकित्सा की जाती है। प्रधानत: ज्वर, रक्तपित्त, शोष, उन्माद, अपस्मार, कुष्ठ, प्रमेह, अतिसार आदि रोगों की चिकित्सा इसके अंतर्गत आती है।

2)  शाल्यतंत्र  (surgery) :-

                                       विविध प्रकार के शल्यों को निकालनेकी विधि एवं अग्नि, क्षार, यंत्र, शस्त्रआदि के प्रयोग द्वारा संपादित चिकित्सा को शल्य चिकित्सा कहते हैं। किसी व्रण में सेतृण के हिस्से, लकड़ी के टुकड़े, पत्थर के टुकड़े, धूल, लोहे के खंड, हड्डी, बाल, नाखून, शल्य, अशुद्ध रक्त, पूय, मृतभ्रूण आदि को निकालना तथा यंत्रोंएवं शस्त्रों के प्रयोग एवं व्रणों के निदान, तथा उसकी चिकित्सा आदि का समावेश शल्यतंत्र के अंतर्गत किया गया है।

3)  शालाक्यतंत्र  (E.N.T. & EYE) :-

                                                  गले के ऊपर के अंगों की चिकित्सा में बहुधा शलाका सदृश यंत्रों एवं शस्त्रों का प्रयोग होने से इसे शालाक्ययंत्र कहते हैं। इसके अंतर्गत प्रधानत: मुख, नासिका, नेत्र, कर्ण आदि अंगों में उत्पन्न व्याधियों की चिकित्सा आती है।

4)  कौमारभृत्य ( बाल रोग ) :-

                                           बच्चों, स्त्रियों विशेषत: गर्भिणी स्त्रियों और विशेष स्त्रीरोगके साथ
गर्भविज्ञान  का वर्णन इस तंत्र में है।

5)  अगदतंत्र / व्यवहार आयुर्वेद ( विष चिकित्सा ) :- 

                    इसमें विभिन्न स्थावर, जंगम और कृत्रिम विषों एवं उनके लक्षणों तथा चिकित्सा का वर्णन है।

6)  भूतविद्या (Psycho-therapy) :-

                                                   इसमें देवाधि ग्रहों द्वारा उत्पन्नहुए विकारों और उसकी चिकित्सा का वर्णन है।

7)  रसायनतंत्र  :-

                        चिरकाल तक वृद्धावस्था के लक्षणों से बचते हुए उत्तम स्वास्थ्य, बल, पौरुष एवं दीर्घायु की प्राप्ति एवं वृद्धावस्था के कारण उत्पन्न हुए विकारों को दूर करने के उपाय इस तंत्र में वर्णित हैं।

8)  वाजीकरण :-

                        शुक्रधातु की उत्पत्ति, पुष्टता एवं उसमें उत्पन्न दोषों एवं उसके क्षय, वृद्धि आदि कारणों से उत्पन्न लक्षणों की चिकित्सा आदि विषयों के साथ उत्तम स्वस्थ संतोनोत्पत्ति संबंधी ज्ञान का वर्णन इसके अंतर्गत आता हैं।




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